अंतर्मन की धुन
आज फिर से हुआ हैं अहसास
की क्यूँ हैं यह जीवन उदास
भटक रहा हूँ बंजारा बन
कैसा हैं यह आवारापन
दाँव पर हैं सम्पूर्ण जिंदगानी
फिर भी हमेशा दिल की बात मानी
हो गया हूँ वश में इन्द्रानी के
जो अनभिग हैं इस कहानी से
मचल रहा मन हो रही उथल पुथल
नहीं हो रहा कठिनाइयों का पर्वत समतल
ऐ बेखबर तुझे कैसे बतलाऊ
क्या करू की तेरे काबिल बन जाऊ
एक तेरी झलक देती हैं प्रेणना
मरहम हैं लेकिन फिर जख्म उकेरना
जीवन के लक्ष्य हो गए हैं दूर
छिन गया हैं आँखों का नूर
स्वप्न हुए पराये, वर्षों हुए मुस्कुराएँ
बन ना जाऊं इतिहास का पत्थर
ऐ मंजिल सवारों जीवन का मुक्कदर