Wednesday 13 February 2013



         अंतर्मन की धुन


आज  फिर   से  हुआ   हैं  अहसास
की  क्यूँ  हैं  यह   जीवन  उदास
भटक  रहा  हूँ  बंजारा   बन
कैसा  हैं  यह   आवारापन


दाँव  पर  हैं  सम्पूर्ण  जिंदगानी
फिर  भी  हमेशा  दिल  की  बात  मानी


हो  गया  हूँ  वश  में  इन्द्रानी  के
जो  अनभिग  हैं  इस  कहानी  से
मचल  रहा  मन  हो  रही  उथल  पुथल
नहीं  हो  रहा  कठिनाइयों  का  पर्वत  समतल


ऐ  बेखबर  तुझे  कैसे  बतलाऊ
क्या  करू  की  तेरे  काबिल  बन  जाऊ
एक  तेरी  झलक  देती  हैं  प्रेणना
मरहम  हैं  लेकिन  फिर  जख्म  उकेरना
जीवन  के  लक्ष्य  हो  गए  हैं  दूर
छिन  गया  हैं  आँखों  का  नूर

स्वप्न  हुए  पराये, वर्षों  हुए  मुस्कुराएँ

बन   ना  जाऊं  इतिहास  का  पत्थर
ऐ  मंजिल  सवारों  जीवन  का   मुक्कदर